Wednesday, 25 May 2011

जब भी देखा है , नन्हे बच्चों को स्कूल जाते हुए....


जुबैर रिज़वी की लिखी हैं ये पंक्तियाँ, कल उनसे बात भी हुई.....भले इंसान लगे, वे भी मीडिया संस्थानों से और मीडिया जगत से करीब से जुड़े हैं, मैं भी जुडी रही लम्बे दौर तक पर अब जो काम कर रही हूँ लगता है बस यही करना चाहती थी, हर दिन कुछ नया करने की ललक और कसक, ज़मीन से जुड़कर काम करने वालों के आगे नतमस्तक हूँ, बंद कमरों में पंचायती करना सबसे आसान है, ज्ञान बांटना सबसे कम जोखिम भरा। काम की कमान सम्हालना , अपने को झोंकना और अपने साथ ही साथियों का मनोबल बनाये रखना सबसे चुनौती भरा
इस बार बच्चों की शिक्षा के लिए संपादकीय अभियान चलाया तो समझ आया की वाकई अखबार के बूते चाहें तो बदलाव का आगाज़ कर सकते हैं, कुछ दे सकते हैं, पर बहुत मुश्किल है सबको अपनी सोच से साझा करना , करीब ५०० बच्चों को स्कूल के दर तक पहुंचा कर सुकून मिला, अभी निजी स्कूलों में गरीब बच्चों के लिए लड़ाई लड़ी, अब सरकारी स्कूलों पर नज़र होगी, ....इस बार सरकारी अध्यापकों को अपनी अंतरात्मा के दर्शन करवाएंगे । विदेशों में बसे अपने मीडिया दोस्तों से बात करती हूँ तो सब शिख्सा के मसले का सबसे पावन काम मानते हैं, बच्चे को पढ़ाई की सौगात दे देना उसकी ज़िन्दगी की आधारशिला रख देना है, अच्छी मंशा से काम की शुरुआत करे तो कुदरत भी साथ निभाती है .....

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